BHRAMAR KA DARD AUR DARPAN

Saturday, May 23, 2015

अच्छा लगता सब कुछ- जैसे माँ की लोरी



अच्छा लगता सब कुछ- जैसे माँ की लोरी
गिरि की खोह से निकला सूरज
स्वर्ण रश्मियाँ ज्यों सोना बरसाईं
हुआ उजाला चमक उठा सब
चिड़ियाँ चहकीं अंगड़ाई ले जागा नीरज
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खिले फूल बहुरंगी प्यारे
खिले-खिले हर चेहरे न्यारे
रंग बिरंगी तितली मन को चली उड़ाए
पंख लगा मन भर 'कुबेर' सा फूल रहा रे !
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बहुत सुहानी मन-हर वायु जैसे अमृत
नदी पहाड़ से उड़ -उड़ आती
जान फूंक देती प्राणी या कोई चराचर
हिंडोले में सावन जैसे गजब झुलाती !
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आओ घूमें उठ के सुबह सवेरे नित ही
भरें ऊर्जा ओज योग आसन में रम जाएँ
भौतिक से कुछ सूक्ष्म जगत परमात्म  ओर भी-
मन लाएं ! सुंदर सुविचार  कर्म क्षेत्र  क्षेत्र ले जुट जाएँ
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घर आँगन परिवार हमारे सखा -सहेली
कितने प्यारे मन को सारे लगे दुलारे
अच्छा लगता सब कुछ जैसे माँ की लोरी
संयम साहस संस्कार ले जीत जहां रे !
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आओ अपना लें सब अच्छा दुर्गुण छोड़ें
सच ईमान को अंग बना लें रहें ख़ुशी
दिव्यानंद समाये मन में हाथ मिला लें
सब को गले लगा रे प्यारे , ना धन-निर्धन दीन दुखी
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
१-५-२०१५ श्रमिक दिवस
कुल्लू हिमाचल




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Monday, May 11, 2015

आओ माँ मै पुनः चिढाऊं



आओ माँ मै पुनः चिढाऊं

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(mother with father )

मन कहता मै पुनः शिशु बन

 माँ के आँचल खेलूँ

कल्पवृक्ष सम माँ ममता संग

गोदी खेले प्रेम का सागर पी लूँ

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मुझे निहारे मुझे दुलारे

तुतला गाये शिशु बन जाए

हो आनंदित हर सुख पाये

माँ को मेरी 'आँच ' न आये

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मुझमे माँ का प्राण बसा है

माँ के प्राण मै वास करूँ

मेरे दुःख से दुखी वो होती

धन्य जननि शत नमन करूँ

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जननी माँ तू जग कल्याणी

शक्ति प्रेम सब में भरती

गुरु माँ तू आलोकित करती

'पीड़ा' तम जग की हरती

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कभी खिलाने कभी खोजने

पीछे पीछे मेरे भागी

रुष्ट हुआ वीमार हुआ तो

रात-रात सोची जागी

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क्षुधा हमारी पीड़ा मेरी

जादू जैसे मुझसे पहले तू जाने

भूखी रह तू तृप्त है करती

दुर्गा काली नीलकंठ तू जग जाने

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कभी घटुरुवन कभी खड़ा मै

गिर-गिर उठता सम्हल गया

याद तुम्हारी ऊँगली की माँ

थामे बढ़ा पहाड़ चढ़ा

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शत शत नमन करूँ हे माता

मेरी उम्र तुम्हे लग जाए

करुणा निधान वारें हर खुशियाँ

लेश मात्र दुःख छू ना पाये

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दुःख सुख में माँ ही मुख निकले

'लोरी' जीवन झंकृत करती

नहीं 'उऋण' माँ जग कुछ कर ले

'जीवन' दान जो तू जग करती

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कर-कमलों को सिर पर मेरे

रख देना -देना आशीष

'सूरज' चंदा जो ये तेरे

करें उजाला -माँ के साथ

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तेरी ममता का बखान मै

लिखता लिखता तक जाता

सृजती रूप धरे माँ नवधा

रोता-जाता माँ माँ केवल लिख पाता

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रोम-रोम हर कण माँ मेरे

रूप धरे- प्रभु वास करे

सात्विक गन संस्कार ये मेरे

'नौका' बन भव पार करे

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सीख मिली जो बचपन माता

गुण गाता ना कभी अघाता

जनम -जनम मै शिशु तू माता

पुनः मिले ये करें विधाता

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दे आशीष सदा दिल तेरे

टुकड़ा-दिल बन रह जाऊं

उऋण भले ना माँ मै तुझसे

'प्रेम' तेरा तुझ संग मै बांटूँ

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आओ माँ मै पुनः चिढाऊं

डाँट मार कुछ खाऊं

कान पकड़ फिर 'राह ' मै पाऊँ

ना भटकूँ आँचल छाँव में सो जाऊं

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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५

मातृ दिवस पर

८-८.२० मध्याह्न १०-मई -२०१५

कुल्लू हिमाचल प्रदेश भारत 




दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Tuesday, May 5, 2015

माँ लोट रही-चीखें क्रंदन बस यहां वहां


माँ लोट रही-चीखें क्रंदन बस यहां वहां

  ( photo with thanks from google/net)

एक जोर बड़ी आवाज हुयी
जैसे विमान बादल गरजा
आया चक्कर मष्तिष्क उलझन
घुमरी-चक्कर जैसे वचपन
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अब प्राण घिरे लगता संकट
पग भाग चले इत उत झटपट
कुछ ईंट गिरी गिरते पत्थर
कुछ भवन धूल उड़ता चंदन
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माटी से माटी मिलने को
आतुर सबको झकझोर दिया
कुछ गले मिले कुछ रोते जो
साँसे-दिल जैसे दफन किया
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चीखें क्रंदन बस यहां वहां
फटती छाती बस रक्त बहा
कहीं शिशु नहीं माँ लोट रही
कहीं माँ का आँचल -आस गयी
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कोई फोड़े चूड़ी पति नहीं
पति विलख रहा है 'जान' नहीं
भाई -भगिनी कुछ बिछड़ गए
रिश्ते -नाते सब बिखर गए
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सहमा मन अंतर काँप गया
अनहोनी बस मन भांप गया
भूकम्प है धरती काँप गयी
कुछ 'पाप' बढ़ा ये आंच लगी
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सुख भौतिक कुदरत लील गयी
धन-निर्धन सारी टीस गयी
साँसे अटकी मन में विचलन
क्या तेरा मेरा , बस पल दो क्षण
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अब एक दूजे में खोये सब
मरहम घावों पे लगाते हैं
ये जीवन क्षण भंगुर है सच
बस 'ईश' खीझ चिल्लाते हैं
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उधर हिमाचल से हिम कुछ
आंसू जैसे ले वेग बढ़ा
कुछ 'वीर' शहादत ज्यों आतुर
छाती में अपनी भींच लिया
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क्या अच्छा बुरा ये होता क्यूँ
है अजब पहेली दुनिया विभ्रम
जो बूझे रस ले -ले समाधि
खो सूक्ष्म जगत -परमात्म मिलन
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कुदरत के आंसू बरस पड़े
तृषित हृदय सहलाने को
पर जख्म नमक ज्यों छिड़क उठे
बस त्राहि-त्राहि कर जाने को
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ऐसा मंजर बस धूल-पंक
धड़कन दिल-सिर पर चढ़ी चले
बौराया मन है पंगु तंत्र
हे शिव शक्ति बस नाम जपें
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इस घोर आपदा सब उलटा
विपदा पर विपदा बढ़ी चले
उखड़ी साँसे जल-जला चला
हिम जाने क्यों है हृदय धधकता
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  आओ जोड़ें सब हाथ प्रभू
 तत्तपर हों  हर दुःख हरने को
मानवता की खातिर 'मानव'
जुट जा इतिहास को रचने को
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हे पशुपति नाथ हे पंचमुखी
क्यों कहर चले बरपाने को
हे दया-सिंधु सब शरण तेरी
क्यों उग्र है क्रूर कहाने को
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"मौलिक व अप्रकाशित"
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
२.३०-३.०२ मध्याह्न
कुल्लू हिमाचल


दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं

Saturday, May 2, 2015

मन की बात



आओ भ्रष्टाचारी भाई
निज मन में तुम झांको
भारत देश है क्यों कर पिछड़ा
मानचित्र में- आंको
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बदहाली बेहाली शिक्षा
अंधकार घर दूर है शिक्षा
टूटी सड़कें ढहे हुए पल
करें इशारा भ्रष्ट काल-कुल
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छीन झपट कर जोड़े  जाते
शीश महल -पर नहीं अघाते
स्नेह गया ना लाज हया
व्यथित ह्रदय मुरझा चेहरा
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भोले प्यारे बच्चे अपने
भाएं अच्छी मन की बात
दुर्गुण करनी तेरी , अपने -
काहे लादें सर पे पाप ?
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'चोर' बना जिनकी खातिर
कल काल मुख कर लेप करें
माँ बाप न मानें मै शातिर
मुंह फेर चलेंगे छोड़ तुझे
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ना बो कंटक तू फूल बिछा
क्यों ह्रदय घात फांसी मांगे
सतकर्म करे प्रभु सभी रिझा
पल दो पल जी खुशियाँ मांगे
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ये महल दुमहले माया सब
कब धूल -ढेर माटी मिलते
प्रेम -पुण्य यादें सुन्दर
सतकर्म आत्म जाएँ संग में
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
कुल्लू हिमाचल भारत
२६.४.२०१५
२.२० मध्याह्न



दे ऐसा आशीष मुझे माँ आँखों का तारा बन जाऊं